Sunday 25 June 2017

प्यार कांच सा

प्यार काँच-सा तोड़ हवा क्यूँ अब हमसे  शर्मिंदा है
तूने टूटे काँच सँजोये,खनक मेरे मन ज़िन्दा है

बेध गयी हैं किरचें मन में
तन से क्या अनुमान लगे
आसां है  दिल का लग जाना
पर निभने में जान लगे

मन की पीड़ा मन समझे या जो मन का बाशिन्दा है

किसको फ़र्क पड़ा टूटन से
किसने क्या कितना खोया
दर्द ,उदासी,तड़पन,उलझन
जो ढोया हमने ढोया

एक बहेलिये ने क्या पाया तनहा हुआ परिंदा है

वो पल मिलें असंभव है जब
तो चल चुप ही रहते हैं
खुशी नहीं तो दर्द सही, चल
आधा आधा सहते हैं

खुशियां शायद कम भी पड़तीं ग़म का प्रिये पुलिंदा है

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