Friday 12 November 2021

कई रातें गुजारीं याद में सोया नहीं हूं मैं
अभी उम्मीद बाकी है तभी खोया नहीं हूं मैं
मैं टूटा काँच हूँ लेकिन अभी बिखरा नहीं हूँ बस
कसम दी है किसी ने इसलिये रोया नहीं हूं मैं

Tuesday 23 March 2021

जंगल जंगल भटक रहा है यह कस्तूरी मृग उदास है
राम बसे हैं अंतर्मन में किन्तु राम की ही तलाश है

धड़कन में धुन राम नाम ही
रोम  रोम  में  राम  राम  ही
राम राम हैं  साँस साँस में
और हृदय में राम धाम ही

कौन बताये कण कण तृण तृण बसी हुई है चिर सुगन्ध जो
मृग बौराया जिसे ढूँढता उसी राम की यह सुवास है

प्रेम-बेर के सरस भोग में
विग्रह व्रत के उपवासों में
राम अवध के स्वर्ण महल में 
राम कठिनतम वनवासों में

जैसे कोई जलचर जल में रहकर जल का पता पूछता
वैसे ही मन पूछ रहा है कहाँ रामजी का  निवास है

सजग जन्म में सुप्त जरा में
जल में नभ में  वसुंधरा में
शिशु तुलसी के प्रथम शब्द में
बाल्मीकि के मरा मरा में

राम वहाँ हैं आदि जहाँ है, और वहाँ भी जहाँ अंत है
मृत्युलोक से मुक्तिधाम तक राम राम का ही प्रकाश है

आशा और निराशा में भी
प्राप्ति, मुक्ति अभिलाषा में भी
जहाँ नाद है राम वहाँ भी
राम मौन की भाषा में भी

कारक और निवारक भी हैं, स्रष्टा भी संहारक भी 
जहाँ तृप्ति है वहाँ राम हैं, राम वहाँ भी जहाँ प्यास है

      

Sunday 29 March 2020

इधर महल में बंद हो गये
सोच लिया सब ठीकठाक है
उधर शकुनि षडयंत्र कर गया

कूटनीति या कुटिल नीति है
भद्रजनों  पर   जो  भारी  है
सूक्ष्म युद्ध से  महानाश  हो
इसकी   पूरी    तै यारी    है

राजलोभ में धर्म मर गया

सबको एक खिलौना समझा
तुम भी एक खिलौने  ही  हो
बड़ा समझने लगे  स्वयं  को 
मनुज अभी तुम बौने ही  हो

क्यों इतना अभिमान भर गया!

क्या   होगा भावी  ना  जाने
आशंका  पर   आशंका   है
चाल कौरवों ने तो  चल  दी
देखें हाथ विदुर के क्या  है?

सोच-सोच मन और डर गया
    प्रवीण प्रसून







Friday 28 February 2020

जीवन है

जीवन है ये जीवन में बदलाव ज़रूरी है
कभी ज़रूरी धूप तो कभी छाँव ज़रूरी है

मंज़िल मिल जायेगी बस है चलने की देरी
स्वागतोत्सुक नवप्रभात निशि ढलने की देरी
दृढ़ निश्चय कब बाधाएँ टिक पाती हैं
अर्जुन के तरकश से तीर निकलने की देरी

जताना नहीं

हम सफर में चले हैं तुम्हें छोड़कर, अपनी आखों में आँसू न लाना कभी
दर्द बेइंतेहा होगा बेशक तुम्हें तुम मगर ये किसी से जताना नहीं

मौत से मन हमारा भरा ही है कब
सच्चा हिन्दोस्तानी डरा ही है कब
हम वतन के सिपाही वतन पर फ़ना
जो वतन पर मरा वो मरा ही है कब

आग आख़िर चिता की तो बुझ जाएगी, आग सीने से अपने बुझाना नहीं

थी कसम हमको इस राह जाना ही है
मादरे हिन्द पे जाँ लुटाना ही है
एक वादा करो तुम भी ऐ साथियों
अम्न के दुश्मनों को मिटाना ही है

भूल जाना भले साँस लेना मगर, तुम ये वादा कभी भी भुलाना नहीं

आने लग गयी

2122 2122 2122 212
सब्र को  मेरे फिज़ा  फिर   आज़माने  लग   गयी
रातरानी की महक खिड़की  से आने  लग   गयी

है  इरादा  क्या  हवा  तू  चाहती  है   क्या    बता
रात  गहराई   है  तू   शम्मा   बुझाने  लग    गयी

जो समझ पाती नहीं थी प्रोज क्या पोएम है क्या
वो भी पगली  प्रेम  में  कविता  बनाने  लग  गयी

पूछना  था   जो  कभी   वो  पूछ  ही  पाया  नहीं
जब मिली जाने मुझे क्या-क्या  बताने  लग  गयी

प्यार में  इक़रार   तो  उसने  किया  ही  था  नहीं
मुझपे जाने कब वो अपना हक़ जताने  लग गयी