तुम हौले से मुस्काई ...
जैसे कोई ख्वाहिश
रह गई कसमसाकर
पूरी होने को
तुम हँसी
जैसे घने कोहरे के बीच
अचानक हँस पड़ी धूप
तुम ने कुछ लफ्ज़ हवा में तैराए
सफ़ेद चादर पर छितर गए
सात रंग चटकीले
तुम उँगलियों से
चेहरे पर आयी लट हटाती रही
मेरे मन में अनगिन प्रश्न
उलझते-सुलझते रहे
तुम्हारी नज़रें मेरी नज़रों से मिलीं
मेरा तन बदन होता गया गुलाबी
तुमने कदम बढ़ाये
खिलते गए गुलाब
तुम्हारे क़दमों के आगे
और पीछे ....
महकती रही मिट्टी देर तलक
-प्रवीण कुमार श्रीवास्तव