Tuesday 22 August 2017

आज़माते रहे हैं

इधर मुझको अपना बताते रहे हैं
उधर उम्र भर आज़माते रहे हैं

किसे ख़्वाब ये मखमली से लगे हैं
हमें ख़्वाब अब तक डराते रहे हैं

जिन्हें दोस्तों का दिया नाम हमने
वो ताज़िन्दगी काम आते रहे हैं

सुकूँ पा रही हैं जिन्हें देख नज़रें
वही मेरे दिल को सताते रहे हैं

अदावत निभाते रहे चुपके चुपके
मगर दावतों में बुलाते रहे हैं

मुक्तक

जो मुझे राज़दार लगते हैं।
भीड़ में अब शुमार लगते हैं
इसमें क्या है नया ये होता है
फूल चुनने में ख़ार लगते हैं।

स्किल इंडिया

स्किल इंडिया, बढ़ता इंडिया।
प्रगति की सीढ़ियाँ, चढ़ता इण्डिया।

युवाशक्ति हो कुशल कार्य में है उद्देश्य यही,
सृजन दक्ष हो नव पीढ़ी है मोदी-ध्येय यही,

चुनौती सामने
लड़ता इण्डिया
आत्मविश्वास से
है खड़ा इण्डिया

पटल विश्व पर सूरज जैसा चमके अपना देश,
कदमताल करते कलपुरज़े
देते हैं सन्देश,

नयी पहचान ले
उभरता इण्डिया,
नए रँग रूप ले
सँवरता इण्डिया।

हुनरमंद हो युवाशक्ति, हो नवनिर्माण समर्थ,
राष्ट्रप्रगति, कौशल विकास का समझो व्यापक अर्थ,

नए आयाम को
गढ़ता इण्डिया,
लक्ष्य संधान को
निकलता इण्डिया।

पंखों में है शक्ति असीमित
खाली है आकाश,
उड़ने का हम हुनर सीखकर रच देंगे इतिहास,

नये आकाश में
उड़ता इंडिया
सृजन अभियान से
जुड़ता इंडिया

मुक्तक

याद तेरी  यही दिलाता है
सब्र मेरा ये आज़माता है
इससे कह दो ये जाय और कहीं
चाँद छत पर जो रोज़ आता है

खुशबुओं को

मुट्ठियों में खुशबुओं को बंद कर के आजमाओ
प्यार के अहसास शायद कैद कर पाओ

तुम दिया हो, मैं अँधेरा ही सही पर
साथ ही रहता कभी नज़रें झुकाओ

कोशिशें कर लो तुम्हे ये भी दिया मौका चलो
दिल हमारा तोड़ दो और मुस्कुराओ

मैं न बोलूँगा तुम्हें फिर लौट आने के लिये
फेर कर नज़रें न लेकिन दिल जलाओ

तुम हो रूठी जाने कब से  कुछ न बोला अब तलक
साँस है ये आख़िरी अब मान जाओ

मुक्तक

अब जनता के अधिकारों पर कोई वार नहीं होगा।
माँ बहनों पर भी अब कोई अत्याचार नहीं होगा।
रोज़गार के अवसर होंगे युवा नहीं अब भटकेगा,
शिष्टाचार सबल होगा अब भ्रष्टाचार नहीं होगा।

जातिवाद परिवारवाद के दिन अब लदने वाले हैं।
झूठे  दावे  हैं  विकास  के,  परदे  उठने  वाले हैं ।
नेता नहीं चुने जायेंगे जनता जाग चुकी है अब,
हम सब मिलकर अब समाज के सेवक चुनने वाले हैं।

       :प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'
       08896865866

खुशबुओं को

मुट्ठियों में खुशबुओं को बंद कर के आजमाओ
प्यार के अहसास शायद कैद कर पाओ

तुम दिया हो, मैं अँधेरा ही सही पर
साथ ही रहता कभी नज़रें झुकाओ

कोशिशें कर लो तुम्हे ये भी दिया मौका चलो
दिल हमारा तोड़ दो और मुस्कुराओ

मैं न बोलूँगा तुम्हें फिर लौट आने के लिये
फेर कर नज़रें न लेकिन दिल जलाओ

तुम हो रूठी जाने कब से  कुछ न बोला अब तलक
साँस है ये आख़िरी अब मान जाओ

मैं हथेली पर

मैं हथेली पर लिये हूँ एक दिया उम्मीद का
किन्तु नैराश्य की आंधी न रोके रुक रही

सूख कर जो मर गए पौधे न ये हरियाएँगे
अब सृजन की कल्पना में गीत कैसे गाएंगे
खंडहर के स्वप्न दुस्तर छोड़ते पीछा नहीं
नींव नव निर्माण की कैसे कहो रख पाएंगे

अब उजाले की बची संभावना भी चुक रही

तन हुआ आज़ाद लेकिन मन नहीं आज़ाद है
जीभ पर अब भी गुलामी का बचा कुछ स्वाद है
क्रांति के किस्से सभी स्मृति पटल से मिट गए
या तुम्हें बलिदान का वो दौर अब भी याद है

मुश्किलों के सामने गर्दन कहो क्यों झुक रही

आपसी सम्बन्ध सारे बेतरह कड़ुआ गये
प्रेम के पौधे जलन की धूप में मुरझा गये
अर्थ ही आधार है अब व्यर्थ सब व्यवहार हैं
वे सगे जो स्वार्थ वाले दायरे में आ गये

मित्रता अब क्यो नियत अधिकार की इच्छुक रही

अहिंसक

मिलें तो रोज़ हम तुमसे मगर कोई वजह तो हो
गिरह तो हो

221 1221 1221 122
जो लोग किसी और का हक़ खाये हुए हैं।
वो आज  किसी  बात से  घबराये  हुए  हैं।

कल तक जो मुस्कुरा रहे थे जाने क्या हुआ
कुछ बात तो है आज तमतमाये हुए हैं।
 
बेकाम तिज़ोरी में रहा बंद जो पैसा
वो आज निकलने की गिरह ढूढ़ रहा है

अब तक तो लूटता रहा वो दोनों हाथ से
क्यों है कुबेर अब वो वज़ह ढूढ़ रहा है

माथे पे ग़रीबों के रहा है जो पसीना,
चेहरे पे अमीरों के जगह ढूंढ रहा है

खुशबु ए इश्क को ऐसे संभाल रखा है

व्यंग्य

यू पी के विधानसभा चुनाव में कई धुरंधर (?) पार्टियों की करारी हार देखकर मेरे मन में बहुत पीड़ा हुई। विजेता पार्टी को चौबीस घंटे पानी पी पी कर बधाई देने के बाद थोड़ी फुर्सत मिली तो मैं बड़ा बेमन होकर मंथन करने लगा कि आख़िर इतनी बड़ी हार हुई तो कैसे?
अब गंभीर मंथन करने के लिए शांति और एकांत चाहिए था होली के साथ साथ दीवाली मना रहे जिताड़े मुझे गंभीर नही होने दे रहे थे। ख़ैर....
मंथन तो करना था ही। कॉफी देर मगज़ खपाने के बाद जब मेरी समझ में कुछ नहीं आया तो मुझे ज्योतिषाचार्य मतगिरी जी महाराज की याद आयी। मैं दौड़ा दौड़ा आचार्य जी के पास पहुंचा और सवालों की झड़ी लगा दी। मेरे सवालों को सुनकर पहले तो उन्होंने मेरी ओर ऐसे देखा जैसे मैं बहन जी हूँ और वो इलेक्शन कमीशन जिससे मैं ई वी एम के खोट गिना रहा हूँ।

मंगल दोष
जंगल दोष
जन रोष
लोकतंत्र
सेवा मन्त्र
दान
खान-दान
ना-दान

जग की बातें जग जाने पर
मैं तो अपनी ही कहता हूँ
गीतों में बस वो लिख पाता
जो पीड़ा मैं ख़ुद सहता हूँ

लेकिन एक और सच ये हैं
मैं जग की पीड़ा जीता हूँ
गीतों में सब कह पाने को
शंकर जैसे विष पीता हूँ


Prabhatviews@gmail.com

अभी तो ज़िन्दगी के दिन बहुत
चलो हम ज़िन्दगी को जीत डालें

अंधेरे में करें चलके उजाले
किसी के पांव के कांटे निकालें


नाम तेरा मैं अपने दिल से मिटाऊँ कैसे
घर मैं अपना अपने हाथों से जलाऊँ कैसे

Amarftp2013@gmail.com

112 112 212 2112 121मुझको है अभी याद वो नीचे का पायदान
टूटी हुई चप्पल वो टूटा हुआ मकान

अपने गीतों से साजी, आज़ादी की बलिवेदी
राष्ट्रचेतना के उत्प्रेरक, सोहनलाल द्विवेदी
स्वर्ण अक्षरों में अंकित है अमर तुम्हारा नाम
राष्ट्रप्रेम के गायक तुमको शत शत करूँ प्रणाम

डॉ. ज्ञानेंद्र गौरव एक सामर्थ्यवान रचनाकार हैं। वर्तमान फिल्मी गीतों को सुनकर फिल्मी गीत विधा के रचनाकारों के प्रति जो छवि बनती है उससे हटकर डॉ ज्ञानेंद्र गौरव के गीतों में भरपूर गहराई और वजन है।
     आदर्शों, नैतिकता के पतन से धूल धूसरित होता समाज क्षरित होती मानवता से द्रवित रचनाकार ने लेखनी चलायी तो लोक की पीड़ा भी रचना में उभरी और पीड़ा के इन शब्दों की परछाई में पीड़ा का कारक भी खड़ा मिला साथ-साथ पीड़ा के निराकरण की राह न दिखने की उलझन भी।
   
           लोकतंत्र की रेल, के माध्यम से देश की दुर्दशा के ज़िम्मेदार इंजन (नेता), इसपर सवार ढीठ स्वार्थी समूहों (जातीय संगठन आदि), भ्रष्टाचारी, लापरवाह नियंत्रक (कर्मचारी, अधिकारी), व्यवस्थाहीन डिब्बे (सरकारी विभाग) और ऊँघते यात्री(सोयी हुई जनता) सभी को रचनाकार ने खरी खरी सुनाई है।
   अधिक भोलापन भी अच्छा नहीं होता हमेशा अंजान बने रहकर काम नहीं चलता ज़िम्मेदार नागरिक हैं तो जागना होगा अन्यथा कवि के व्यंग्यबाण का आपकी ओर चलना तय है।
    डॉ ज्ञानेंद्र गौरव अपनी बात कहने में पूर्णतया सफल हुए हैं।
            गंगा की पीड़ा यह नहीं है कि गंगा ने जो दिया उसके बदले में गंगा को कुछ नहीं मिला बल्कि पीड़ा यह है कि कृतघ्न मानव ने गंगा को ऐसा बना दिया कि गंगा देने लायक भी न बची।
           गंगा उल्लास भी देती है, गंगा प्यास भी बुझाती है, गंगा रोज़गार भी देती है, गंगा अपने तट पर ठिकाना भी देती है और गंगा तब भी अपनाती है जब हम सब को व्यर्थ और बोझ समझ मे आने लगते हैं किंतु गंगा को हमारी महत्वाकांक्षा ने मृतप्राय कर दिया।
    हमे हर घर मे सबमर्सिबल पम्प चाहिए, हमें चौबीस घंटे बिजली चाहिए, हमें गंगा किनारे एक्सप्रेस वे भी चाहिए, हमें गंगा किनारे बहुमंज़िला इमारत से गंगा का नज़ारा भी चाहिए, हमें पॉलीथिन और कीटनाशक भी चाहिए, हमें वो फैक्ट्रियां भी चाहियें जो ज़हर देकर गंगा को मार सकें...... क्योंकि हमें गंगा नहीं सुविधाएं चाहियें।
   गंभीरता से अपनी प्राथमिकताएं फिर से तय करने को इंगित करती ज़बरदस्त रचना है।
   सफेदपोशों की दिखावटी गंगा आरती गंगा का भला नहीं करेगी क्योंकि ये वही खद्दरधारी हैं जिनकी फैक्ट्रियां ज़हर बहा रही हैं।
   गंगा ने सबका उद्धार किया है अब समय है कि हम गंगा का क़र्ज़ चुकाएँ। डॉ ज्ञानेंद्र गौरव की यह रचना गंगा संरक्षण हेतु प्रेरित करती है।
     
       
   

लपरहा

मफ़लर टोपी स्वेटर जैकेट कुछ भी मेरे पास नहीं है
घोर घना छाया है कोहरा दिखता कहीं उजास नहीं है
इस मदमाते यौवन में कोई तो जादू है गोरी
इस सर्दी में भी महफ़िल में सर्दी का अहसास नहीं है

बादलों के बीच रहना पड़ गया है
चाँद को ये दर्द सहना पड़ गया है
दर हक़ीक़त चाँद तो बेदाग था

आप तक आ न पायी आँच अपने सर ले ली
काँच का टूटना हरदम अशुभ नहीं होता

इक न इक रोज़ मेरे नाम से वाकिफ़ होंगे
वो उसी रोज़ किसी आम से वाकिफ़ होंगे

Pramod100sb@yahoo.in

यही स्मृति मुझे जिंदा किये है
झरोखे बन्द मत करना

Sunday 13 August 2017

मुक्तक

आकड़ों की इस गणित के कुछ अलग निहितार्थ हैं
शून्य-सी    संवेदना    आकाश    जैसे    स्वार्थ    हैं
हंस  तक  को  तीर  लगने  पर  तड़पता  था  हृदय
एक   वो   सिद्धार्थ   थे   तो   एक   ये   सिद्धार्थ   हैं
                 
                   :प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'
                               फतेहपुर
                            8896865866