Monday 26 June 2017

एक था राजा एक थी रानी

बजने दे पायल की रुनझुन
कहने दे फिर वही कहानी
एक था राजा एक थी रानी

मौन की जब जब टूटी कारा
शब्दों ने तब गीत सँवारा
जब संगीत मिला गीतों से
फूट पड़ी स्मृति की धारा

गीत मेरा संगीत तुम्हारा
साज नया हो बात पुरानी

दिल मे हूक लगे तब उठने
पेड़ों पर जब पपिहा बोले
नीलगगन सी विस्तृत यादें
क्यों यादों के परदे खोले

वो पनघट की मधुरिम सुबहें
वो मधुवन की शाम सुहानी

खेल-खेल में छेड़ दिया तो
रूठी राधा कृष्ण मनाये
बात बात में बात बढ़ी यूँ
हठ कर बैठी पास न आये

यादों में वो मान मनव्वल
भूल न सकती खींचातानी
         

कृष्ण को मुंह मोड़ना है

ज़िन्दगी जीना है, तुमको छोड़ना है
एक तिनके से हिमालय तोड़ना है

बंद दरवाजे निकल सकता नहीं हूँ
मैं तुम्हारे साथ चल सकता नहीं हूं
पर टँके जो चित्र मन दीवार पर हैं
मैं उन्हें भी तो बदल सकता नहीं हूं

बस दीवारों से मुझे सर फोड़ना है

मुश्किलों के सामने झुकना नहीं है
अब किसी के भी लिये रुकना नहीं है
टिमटिमाता मैं दिया हूँ तेल कम है
दिन निकलने  तक मुझे बुझना नहीं है

गर्म मरुथल और मुझको दौड़ना है

हैं प्रतीक्षा में अभी वीरान पनघट
और मधुवन में अभी है शेष आहट
फिर अभी राधा खनक करके हँसेगी
प्रेम सावन में भरेंगें रीते मन-घट

कर्मयोगी कृष्ण को मुँह मोड़ना है

बहते बहते हार गया

दो गीत लिखे थे यौवन में
एक मिलन कथा एक विरह व्यथा
एक गीत अधूरा छूट गया
एक लिखते-लिखते हार गया

वो नीम ठाँव की दोपहरी
वो धूप-छाँव की दोपहरी
जो तपिश विरह की दहकाती
वो प्रेम-गाँव की दोपहरी

तुम प्रिये न फिर मिलने आयी
मैं तकते-तकते हार गया

मैंने इक कोरे पन्ने पर
चेहरे का चित्र उकेरा था
कोरा पन्ना था हृदय मेरा
पन्ने पर चेहरा तेरा था

मैं चला रंग भरने उसमें
पर भरते-भरते हार गया

आसान नहीं था चल पाना
इस जीवनराह तुम्हारे बिन
प्रिय बिना इज़ाज़त यादों को
अपने संग रखता रातोदिन

निर्णय था तुम बिन चलने का
पर चलते-चलते हार गया

हो सकी न पूरी अभिलाषा
अब तक, अब पूरी क्या होगी
मुझसे बढ़कर इस दुनिया में
कोई मज़बूरी क्या होगी

दुनिया के शब्दों के शायक
मैं सहते-सहते हार गया

मैं पंछी मस्त गगन का हूँ
क्या करूँ कटी इन पाँखों का
मैं दिल से सीधे निकला हूँ
दिखता हूँ आँसू आँखों का

कब ?कौन? समय से जीता है
मैं बहते-बहते हार गया
              :प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'

अधूरा सफ़र

शादी के पाँच साल बाद अचानक बस स्टॉप पर पिहू का मिल जाना बिल्कुल ऐसा था जैसे जेठ की दुपहरी में रिमझिम फुहार आसमान से बरसने लगे। हमारी नज़रें जैसे ही एक दूसरे से मिलीं हम दोनों कुछ अचंभित से एक दूसरे की आँखों में ताकते रहे। कुछ सेकेण्ड बाद बस स्टॉप की भीड़ का अहसास हुआ तो दोनों ने साथ-साथ नज़रें आस-पास घुमाईं फिर साथ ही साथ बोल पड़े..."अरे तुम!"
हम दोनों मुस्कुरा दिए, फिर मैं चुप रहा मुझे लगा इस बार मैं बोला तो फिर साथ ही बोल पड़ेंगे।
इस बार पिहू ही बोली..."कैसे हो"?
मेरे दिलो-दिमाग़ तक उसकी आवाज़ चुभती सी चली गयी।
"ठीक हूँ"।मैं थोड़ी देर बाद बोल पाया।
"और तुम"....? मेरे शब्द कुछ लड़खड़ा गये थे।
उसने मेरे सवाल का ज़वाब नहीं दिया।
"कैसा हाल बना रखा है? शेव कब से नहीं की? या कोई मन्नत माँग रखी है।"
कहना तो चाहता था किसके लिए करूँ या जब से तुमसे दूर हुआ मन नहीं करता या फिर ये कि तुम्हे क्या फ़र्क पड़ता है लेकिन.... यह सब कहने का अब कोई मतलब नहीं था।
मैं अनमने सा बोला .."कुछ नहीं..ऐसी कोई बात नहीं। और तुम बताओ घर में सब कैसे ? अकेले कहाँ जा रही हो ?
पिहू की पुरानी आदत है मेरी किसी बात का ज़वाब देना ज़रूरी नहीं समझती वो। उसके बदले में एक नया सवाल मुझसे कर देगी। आज भी वही हुआ। अच्छा लग रहा था कि अभी भी वो बदली नहीं है। सब कुछ वैसा ही है...उसकी ख़ूबसूरती, उसकी चहकती आवाज़ और उसकी आदतें भी शायद।
उसका अगला सवाल था "कभी याद नहीं आती मेरी!"
उसके इस सवाल के साथ ही हम पुराने ख्यालों में एक दूसरे का हाथ थामे सा खोते चले गए।
पिहू से मेरे मिलने की दास्तांन भी कुछ अलग है। बात तब की है जब मैंने बी एस सी एंट्रेन्स एग्जाम का फॉर्म लेने डी. एन. बरुआ महाविद्यालय गया था। जुलाई की चिपचिपी गर्मी में सुबह से लाइन में लगा था। फॉर्म बाँटने वाला बाबू साढ़े बारह बजे बिना कुछ बोले काउंटर विंडो बंद करके चला गया था। सबने शोर करना शुरू किया तो पता चला लंच हुआ है डेढ़ बजे फॉर्म बँटना शुरू होगा।
आख़िर दो बजे खिड़की खुली हम लोग लाइन से इस डर से नहीं हटे कि दूसरा आगे आ जायेगा। मेरे आगे अभी बीस पच्चीस लड़के थे। पन्द्रह बीस मिनट तक फॉर्म बँटे फिर बाबू जो जीभ के नीचे तम्बाकू दबाये बैठा था, बोला - बी एस सी के फॉर्म ख़त्म हो गए हैं केवल बी ए के फॉर्म मिलेंगे। जिन्हें बी एस सी के फॉर्म चाहिए वो कल आयें।
मेरी तो जान सूख गयी.... "ओह शिट"
अब कर भी क्या सकता था।
लाइन से बाहर निकला। बग़ल में लड़कियों वाले काउंटर विंडो पर अभी भी बी एस सी के फॉर्म मिल रहे थे। मैंने लाइन में नज़र दौड़ाई। एक जगह मेरी नज़र रुकी। पिंक सलवार सूट में एक लड़की हँस-हँस कर आगे और पीछे की लड़कियों से बातें कर रही थी।मुझे पता नहीं क्यूँ ये लगा कि यह मेरी हेल्प कर सकती है। मैं उसकी तरफ़ देख ही रहा था कि उसकी नज़र भी मुझ पर पड़ गयी वो दो तीन सेकेण्ड मुझे देखती रही और फिर बातों में बिजी हो गयी। मैं हिम्मत करके उसके पास गया।
"सुनिये...एक फॉर्म मेरा भी ले लेंगीं क्या? उस विंडो में फॉर्म ख़त्म हो गए हैं।"
कहते हुए मैंने पाँच सौ का नोट उधर बढ़ा दिया। उसने बिना कुछ बोले नोट ले लिया। मैंने कहा "मैं यहाँ हूँ गेट के पास"
वह कुछ नहीं बोली।
लड़कियों वाली लाइन में काम कुछ ज़ल्दी हो रहा था और ज़्यादा लंबी लाइन भी नहीं थी। पन्द्रह बीस मिनट के बाद ही वो फॉर्म लेकर आती दिखाई दी। मैं लपक कर उसके पास गया। मैं उससे कुछ पूछता इससे पहले ही वह बोल पड़ी "सॉरी उसने दो फॉर्म एक साथ देने से मना कर दिया।
"ओह नो! अब मुझे कल फिर इतने दूर से आना पड़ेगा।" मैं हताश सा बुदबुदाया।
"कहाँ घर है आपका?" उसने पूछा।
"रतन नगर" मैंने उदास स्वर में कहा।
"अरे वो तो काफी दूर है।" फिर उसने जाने क्या सोचा और मेरी ओर फॉर्म बढ़ाकर बोली ये आप ले जाओ।
'क्या! मैंने अविश्वसनीय स्वर में कहा।
"और तुम?"....
वो बोली मेरा घर तो पास में ही है मैं कल आकर ले लूँगी।
मैंने थैंक्स कह कर फॉर्म ले लिया। वह सिर्फ़ मुस्कुराई और मुड़कर चली गयी।
मैं अजीब सी ख़ुशी लिए घर आ गया।
   रात को फॉर्म भरने के लिए लिफ़ाफ़ा खोला तो वो चेहरा मेरे खयालों में फिर आ गया। मैं अपने आप ही बड़बड़ाया कुछ लोग कितने अच्छे होते हैं। फिर ख़ुद पर थोड़ा गुस्सा भी आया ज़ल्दी में उसका नाम भी नहीं पूछा। फिर सोचा चलो अगर एडमिशन हो गया तो मुलाकात तो होगी ही। फॉर्म भरते भरते और उस लड़की के बारे में सोचते -सोचते नींद कब आ गयी पता ही नहीं चला।
      दूसरे दिन न जाने क्यूँ मेरे मन में खयाल आया चलो कॉलेज चलें शायद वो फिर मिले।
''लेकिन क्यों?" मेरे दिमाग़ ने प्रश्न किया।
इस प्रश्न का मेरे पास कोई उत्तर नहीं था। मैं न जाने किस आकर्षण में कॉलेज की ओर चल पड़ा और आज मैं कल से ज़्यादा अच्छी स्टाइल में कॉलेज पहुंचा था।
अभी विंडो खुली नहीं थी। लड़कों की लाइन में सिर्फ़ चार लोग ही थे। मुझे जाने क्या सूझा मैं फिर लाइन में खड़ा हो गया।
विंडो खुली, थोड़ी देर बाद मुझे फॉर्म भी मिल गया।
अब मैं खुश था कि चलो वो आयेगी तो उसे लाइन में नहीं लगना पड़ेगा। मैं उसके आते ही उसे फॉर्म दे दूँगा। कितनी खुश हो जायेगी वो।मैं सामने वाली चाय की दूकान पर जा कर बैठ गया। वहाँ से लड़कियों वाला काउन्टर साफ दिख रहा था। मैं घड़ी देखता रहा । इंतज़ार करता रहा। बीच बीच में उठकर लाइन में नज़रें दौड़ाता फिर चाय की दूकान पर आ जाता। चार बज गये।काउन्टर बंद हो गया। ....वो नहीं आयी थी। मैंने गहरी साँस ली। बोझिल क़दमों से बस स्टॉप की तरफ़ बढ़ गया।
     रात मुश्किल से कटी। दूसरे दिन मैं टाइम से पहले ही कॉलेज पहुँच गया। इस डर से कि कहीं वह आकर चली न जाये। दूसरा तीसरा चौथा दिन इसी तरह बीत गये। माँ रोज पूछती प्रतीक बेटा सब ठीक तो है? फॉर्म नहीं मिल रहा क्या?
क्या कहता माँ से कि फॉर्म मिल गया है तुम्हारे लिए बहू का इंतज़ाम कर रहा हूँ।
      ख़ैर... मैंने पहली बार माँ से झूठ बोला नहीं मम्मा फॉर्म तो मिल गया है जमा करने में बहुत भीड़ हो रही है।
आख़िर पांचवें दिन मेरी मुराद पूरी हुई। मैं चाय की दूकान पर बैठा था। वो दूर से आती मुझे दिखाई दी लेकिन उसके साथ में शायद उसके पापा थे। मैं लगभग दौड़ कर उसके पास पहुँचा। मेरी आँखों में एक चमक सी थी। मैंने फॉर्म उसकी तरफ़ बढ़ा दिया।
अरे ! ये क्या तुमने कब लिया? वह आश्चर्य से बोली।
म्म.... मैंने अभी अभी। मेरी ज़ुबान जाने क्यों लड़खड़ा गयी। व.... वो मैं फॉर्म जमा करने आया था तो मैंने सोचा तुम्हारे लिए फॉर्म ले लूँ भीड़ कम है।
"अच्छा थैंक्स" कहकर उसने परिचय कराया ये मेरे पापा हैं और पापा ये..
मैं प्रतीक...उसकी बात बीच में काटकर ही मैं बोल पड़ा।
...जी प्रतीक श्रीवास्तव। लेकिन उसके पापा के चेहरे पर कुछ दूसरे ही भाव उभरे। तुम इन्हें कैसे जानती हो? उन्होंने सवाल किया।
"वो..ये ना मेरी सहेली के भाई हैं" वह पापा से नज़रें चुराते हुए बोली।
शायद ...उसने भी अपने पापा से पहली बार झूठ बोला था।
    रात मैं अपने कमरे में लेटा करवटें बदल रहा था बारह बजकर बीस मिनट हो रहे थे। अचानक मेरा फोन वाइब्रेट हुआ और कट गया। मिस्ड कॉल थी। अन नोन नम्बर.... मैं ख़ुशी से पागल हो गया। उसी का मिस्डकॉल होगा । मैंने फॉर्म के लिफाफे  के  एक कोने में अपना नम्बर लिख दिया था। मैंने तुरन्त कॉल बैक किया। फोन काट दिया गया।
पाँच मिनट बाद फिर मिसकॉल आयी। मैंने कॉल की तो उधर से धीमी सी लेकिन प्यारी सी आवाज़ आयी....हैलो.....
     मैं इधर से बोला "हैलो..मैं प्रतीक। कैसी हो तुम?"
उधर से उत्तर देने के बज़ाय एक प्रश्न किया गया । सच सच बताओ फॉर्म तुमने कब लिया था।
   अरे मैंने बताया तो था ..आज ही।
"हट्ट! झूठे तुम्हे कैसे पता कि मैंने बीच में चार दिनों में फॉर्म नहीं लिया है। और तुम्हे ये नहीं पता है कि फॉर्म के लिफ़ाफे में बाबू उस डेट की सील लगाके देता है जिस डेट में फॉर्म लिया जाता है।" वो खिलखिलाकर हँसी और देर तक हँसती रही। जब वो रुकी तो एक शब्द उसके मुँह से निकला पागल...। मैं कुछ नहीं बोला उसकी हँसी मेरे कानों में अभी भी गूँज रही थी...जैसे मंदिर में पवित्र घंटियाँ...।
उधर से आवाज़ आयी "तुम रोज़ कॉलेज अस रहे हो ना उस दिन से।'
मैं बस.... "ह्म्म" कह पाया।
उधर से आवाज़ आयी अच्छा अभी रखती हूँ कोई जग रहा है।
मैंने ज़ल्दी से पूछा अपना नाम तो बताओ लेकिन तब तक....टीं टीं टीं बीप कर फोन कट गया।
थोड़ी देर में एक मैसेज आया 'पिहू'।
मैं तो जैसे सातवें आसमान पर था। नींद तो न जाने कहाँ छू हो गई थी। मैंने पता नहीं कितनी बार दोहराया पिहू...पिहू....पिहू...पिहू आई लाइक यू... पिहू आई लाइक यू.... पिहू आई लव यू।
     दूसरे दिन दोपहर में उसका मैसेज आया मैं कल फॉर्म जमा करने जाऊँगी।
शायद उसका मतलब था कि तुम भी आना। मैं अगले दिन टाइम से पहले फिर कॉलेज पहुँच गया। क़रीब एक घण्टे बाद वो आयी। आज वो अकेली थी। पास आते ही मैं बोला ..हाय पिहू। उसका नाम मैंने जानबूझ कर लिया था। उसका नाम लेने से मेरे दिल के गिटार के न जाने कितने तार एक साथ झनझना जाते थे। मैंने कहा आओ कैंटीन में चलते हैं अभी विंडो खुलने में आधे घण्टे हैं। ज़्यादा भीड़ भी नहीं दिख रही है। हम दोनों कैन्टीन की तरफ़ बढ़ गये। कैंटीन में बैठे बैठे हम दोनों अपनी अपनी पसन्द नापसंद बताते रहे। उसने अपनी फेमिली के बारे में बताया। आधा घंटा बीत गया और हमें लगा कि आधा मिनट ही हुआ है। फॉर्म जमा कर हम लोग अपने अपने घर आ गये। फोन पर हमारी बातें होती रहीं।
मिस्ड कॉल ..बैक कॉल.. मैसेज....बातों पर बातें और हम एक दूसरे को इतना समझने लगे थे जैसे कई सदियों से एक दूसरे को जानते हों। प्यार में ऐसा होता है ये मैंने सुना था । अब महसूस कर रहा था। आख़िर मेरिट जारी हुई ।
हम दोनों को एक ही सेक्शन में एडमिशन मिला था। जैसे हमारी हर मुराद ऊपरवाला पूरा करता जा रहा था। कॉलेज के पहले दिन से ही मुलाकातों का दौर शुरू हुआ तो थमा नहीं। हम लोग सपने बुनते रहे। प्यार के पंख लग ही चुके थे। क्लास के बाद कभी कैंटीन कभी लॉन कभी ब्रॉडरोड के सजीले रेस्टोरेंट में हम लैला मजनू की तरह बैठे मिलते। पूरे कॉलेज में तीन चार महीनों में ही हमारी चर्चा आम हो गयी थी। साल बीता..एग्ज़ाम में हम दोनों जैसा कि हम लोगों को पहले से ही पता था, मुश्किल से पास हुये थे। मुझे तो माँ ने ज़्यादा कुछ नहीं कहा लेकिन पिहू को उसके पापा ने लंबा चौड़ा लेक्चर दे डाला था।
वो कहते हैं ना कि मुसीबत आती है तो अकेले नहीं आती। एक दिन मैसेज आया "आज मैं कॉलेज नहीं आ रही दो बजे रेसिपी कॉर्नर रेस्टोरेंट में मिलो"
मैं रेस्टोरेंट में चार बजे तक इंतजार करता रहा तीन कॉफ़ी ख़त्म कर डाली। न वो आयी न उसकी कॉल। कॉल करने पर फोन स्विच ऑफ आ रहा था। मैं बहुत उलझन में था। क्या हुआ होगा..कुछ तो गड़बड़ है । आज तक तो ऐसा नहीं हुआ। हर दस मिनट में उसका नम्बर ट्राई करता रहा। आख़िर रात में उसका मैसेज आया। "भैया ने मैसेज देख लिया था पापा को बता दिया । मैसेज मत करना, कॉल भी नहीं..."
मेरा दिल बैठा जा रहा था। थोड़ी सी बात हो जाये काश। उसके पापा ने तो बहुत डाँटा होगा उसे। उधेड़बुन में सारी रात कट गयी। अगले दिन मैं कॉलेज पहुँचा। पिहू आयी और मुझसे अलग सीट पर बैठ गयी। दो लेक्चर ख़त्म हो गये उसने मेरी तरफ़ देखा तक नहीं। लंच टाइम में मैं उसके पास जाकर बोला
"चलो कैन्टीन चलते हैं वहीं बात करेंगे।"
"तुम जाओ मुझे नहीं आना" मैं बगल की सीट पर बैठ गया "क्या हुआ कुछ बताओ तो..."
"प्लीज तुम जाओ" उसने बिना मेरी तरफ़ देखे कहा।
मैं उठकर अपनी सीट पर आ गया। उस दिन के बाद उससे मेरी बात बंद हो गयी।फोन शायद ले लिया गया था उससे। एक दिन अन नोन नम्बर से उसका मैसेज आया। "सॉरी बुरा मत मानना मैं तुम्हें बहुत प्यार करती हूँ लेकिन पापा से डर लगता है। उन्हें तब से ही शक था जब तुमसे वो कॉलेज में मिले थे। वो तुम्हें पहचानते हैं।मैं तुम्हारे साथ कोई बुरा बर्ताव होते नहीं देख सकती।"
मैंने मैसेज किया "क्या मैं तुम्हे कॉल करूँ?"
"नहीं मैसेज से बात करो मम्मीका फोन है।" उत्तर आया।
मैंने मैसेज किया "क्या मैं पापा से बात करूँ?"
रिप्लाई आया नहीं कोई फ़ायदा नहीं। तुम उन्हें नहीं जानते मैंने मम्मी से बात की थी। मम्मी तो मेरी ख़ुशी चाहती है लेकिन पापा से कुछ कहने से डरती हैं। उन्होंने मुझसे कहा पापा इंटरकास्ट शादी के लिए कभी राज़ी नहीं होंगे।
मैंने मैसेज किया 'मेरा क्या होगा?"
उसके बाद उसका कोई मैसेज नहीं आया।
फ़ाइनल ईयर में पता चला पिहू की शादी तय हो गयी है। उसने सभी फ्रेंड्स को इनवाइट किया था।
उसकी शादी के दिन मैं कमरा बंद करके लेटा रहा सारा दिन...सारी रात। माँ ने दो बार दरवाजा खटखटाया। बेटा खाना तो खा लो तबीयत तो ठीक है ना। मैंने भर्राई आवाज़ में ज़वाब दिया हाँ ठीक है नींद लग रही है। माँ को सब पता था उससे झूठ बोलने का कोई फ़ायदा नहीं था।माँ ने दोबारा दरवाज़ा नहीं खटखटाया। पता नहीं शादी के बाद वो कॉलेज आयी या नहीं, मैंने कॉलेज जाना छोड़ दिया था। फ़ाइनल एग्ज़ाम में वह मिली मैंने धीरे से उसे कोन्ग्रैच कहा वह उससे भी धीरे और उदास मन से थैंक्यू बोल कर चली गयी। मेरे आँसू बंद ही नहीं हो रहे थे..उसका भी शायद यही हाल था।
    तब के बाद आज अचानक वो मेरे सामने थी ऐसा लग रहा था जैसे समय वापस आ गया। लेकिन कहाँ..? यह मुमकिन कहाँ था। उसके मोबाइल की रिंग बजी।उधर से कुछ पूछा गया वो बोली "हाँ जी बस अभी अभी आयी है।मैं बैठ रही हूँ कॉल यू लेटर ..बाय।" मैंने पीछे से कहा मुझे तो हमेशा तुम्हारी याद आती है....और तुम्हे..?
        उसने ज़वाब के बज़ाय एक सवाल किया शादी की या नहीं अभी तक...? और फिर एक बार मेरे ज़वाब को सुने बग़ैर बस में चढ़ गयी।
    प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'
     फतेहपुर उत्तर प्रदेश
       08896865866

कानून शरीयत वाला

222 222 222 222 22
एक बना कानून अगर हक़ और हिफाज़त वाला
क्यों फिर लेकर बैठे हो कानून शरीयत वाला।

तीन तलाक, हलाला क्या है समझाओ तो मुझको
औरत की इज़्ज़त ना जाने कैसा इज़्ज़त वाला

बात सही कड़वी होती है पर कहना पड़ता है
क्या तकलीफ़ हुयी है क्यों अंदाज़ बगावत वाला।

औरत ही महफूज़ नहीं तो क्या कानून शरीया,
कहने को कानून मियां फ़रमान ज़लालत वाला।

पन्ने फाड़ो फेंको जिनको दीमक खा बैठी है,
किस्सा जड़ से ख़त्म करो इस बार हिक़ारत वाला।
   :प्रवीण 'प्रसून'
   08896865866

ॐ घाट

यह छोटे से शहर
फतेहपुर का
ॐ घाट है
गंगा बेशक़ मैली हैं
यहाँ भी
पीछे से बहकर आये
महानगरीय कचरे से
लेकिन पाट
प्रदूषण मुक्त है
इस युग के
भागीरथ स्वामी विज्ञानानंद के
पवन प्रयास से
यहाँ तक अभी
मेले का कानफोड़ू शोर
चाट के ठेले की टनटनाटन भी
पहुँच नहीं पायी
और न अपसंस्कृति के
प्रदूषण को किसी ने यहाँ का
पता दिया...
घाट की सीढ़ियों
और झाड़ियों के झुरमुट में
अभी दिखायी नहीं देते
अधनंगे जोड़े
सुकून से घाट पर
चार पल सो लेने की
अभिलाषा
पूरी हो सकती है यहाँ
क्योंकि किसी पुलिस वाले
या किसी गार्ड द्वारा
पीछे से डंडा कोंचकर
निद्राभंग कर देने का भय नहीं है
और न किसी पॉकेटमार द्वारा
जेब साफ किये जाने का ही।
अशोक अर्जुन या आम पीपल
के मनोहारी वृक्ष के नीचे
कुछ पल
स्वयं को ढूढ़ लेना
अभी यहाँ संभव है
क्योंकि अभी बर्गर और पावभाजी
कोल्ड्रिंक और पिज़्ज़ा
वाले लड़के
आपके ध्यान को भंग नहीं करेंगे
क्योंकि कैन्टीन
अभी यहाँ का रास्ता खोज नहीं पायी
महादेव को निहार सकते हैं आप
तब तक जब तक आत्मतृप्ति न हो
क्योंकि अभी लुटेरे पण्डे द्वारा
आपका हाथ पकड़ कर
आगे बढ़ा दिए जाने का डर नहीं है
आराम से आप गंगाजल या
दूध अर्पित कर सकते हैं
आराध्य को
और अभी मेरी गारंटी है कि
दूध या गंगाजल
आपके पीछेवाले के धक्के से
आपके आगेवाले आदमी के
सिर पर
नहीं चढ़ेगा
केवल
आने और जाने का किराया
अगर है आपके पास
तो भी आप ॐ घाट
पर आकर गंगास्नान
कर सकते हैं
क्योकिं यहाँ
प्रसाद चढाने की
अनिवार्यता नहीं है
क्या कहा???
खरीदकर गंगा में फूल फेंकने
की अनिवार्यता
नहीं नहीं
आपको विश्वास हो या न हो
प्रतिबंधित है...
       :प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'
       फतेहपुर उ.प्र.
      8896865866

स्वार्थों के पाटे
आपस में घिसते
पिसते रिश्ते

दरका रिश्ता
काँच के गिलास सा
जुड़ न सका


हाइकु :बेटी

बेटी की आँखें
ख्वाबों की तितलियाँ
सजीली पांखें

रोली चन्दन
रंग संग खुशबू
लक्ष्मी वन्दन
 

पिता के ख़्वाब
     सच करेगी बेटी
              रखती ताब
        

छूती शिखर
बिटिया पढ़कर
काटो न पर

वीणा झंकार
सरस्वती साकार
हँसी बिटिया
    :प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'

हाइकु: बहू

बहू का मौन
संभालता है क्या क्या?
जाने ये कौन!
    :प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'

बहू है वही
दो पाटों के बीच जो
नदी-सी बही
      :प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'

नेह ऊन से
संबंधों के स्वेटर
बुनती बहू
    :प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून

फटे कपड़े
तालमेल बिगड़े
बहू बनाती
     :प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'

बहू बनाती
नेह से सींच कर
घर को घर
      :प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'

ख़्वाब सजाने में

2222 2222 222
मुमकिन पहरे तुमसे मिलने जाने में
रोक सकोगे क्या ख़्वाबों में आने में

सारे फ़न हैं  मुझमें उसको लगता है
उलझी है वो दुनिया को समझाने में

मैं लौटा तो छूट गयी मेरे पीछे
एक उदासी उसके ठौर ठिकाने में

एक नज़र दिख जाऊँ तो खिल खिल जाती
जाने क्या दिख जाता मुझ दीवाने में

शायद फिर गुज़रे हैं वो उन गलियों से
छू से गये अहसास वही अनजाने में

नाम लबों तक लाकर बात बदल देते
कितनी आगे हो तुम बात बनाने में

दिल धड़कन सब  नाम तुम्हारे लिख डाला
क्या रक्खा अब मिलने और मिलाने में

Sunday 25 June 2017

मेरा मन साथ देता ही नहीं

मेरा मन साथ देता ही नहीं है
समय के साथ चलना चाहता हूँ
न यादों से निकल पाया अभी तक
तुम्हारे साथ मन, मैं अन-मना हूँ

न  भाती   हैं    मुझे    रंगीनियां   भी
न  तो  ये   शोरगुल  बाजार  का  ही
न मुझ पर  है  असर बदले  जहाँ का
असर अब तक है केवल प्यार का ही

अधूरे प्यार की मैं वेदना हूँ

समन्दर हूँ अतुल जलराशि मुझमें
बुझा पाया न लेकिन प्यास तक मैं
ज़मी की धूल सा लिपटा हुआ था
न बन पाया तभी अहसास तक मैं

बहुत रोया मगर मैं अनसुना हूँ

हमेशा साथ रहती हैं भले ही
न कोई पूछता परछाइयों को
कहाँ परवाह खंडित सूत्र की हो
खोजते लोग बिखरी मोतियों को

भग्न उस सूत्र की संवेदना हूँ
                       :प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'

प्यार कांच सा

प्यार काँच-सा तोड़ हवा क्यूँ अब हमसे  शर्मिंदा है
तूने टूटे काँच सँजोये,खनक मेरे मन ज़िन्दा है

बेध गयी हैं किरचें मन में
तन से क्या अनुमान लगे
आसां है  दिल का लग जाना
पर निभने में जान लगे

मन की पीड़ा मन समझे या जो मन का बाशिन्दा है

किसको फ़र्क पड़ा टूटन से
किसने क्या कितना खोया
दर्द ,उदासी,तड़पन,उलझन
जो ढोया हमने ढोया

एक बहेलिये ने क्या पाया तनहा हुआ परिंदा है

वो पल मिलें असंभव है जब
तो चल चुप ही रहते हैं
खुशी नहीं तो दर्द सही, चल
आधा आधा सहते हैं

खुशियां शायद कम भी पड़तीं ग़म का प्रिये पुलिंदा है

Tuesday 20 June 2017

ओस की बूँद सा दिल

            ओस की बूँद-सा दिल
           चमकता प्यार झिलमिल
बहुत है सर्द मौसम
हवाएँ कुछ अलग हैं
चाँद की ओर हमको
बढ़ाने और पग हैं

प्यार में साधना को
करेंगे और शामिल

कोई देहरी पे आया
दीप-सा जल उठा मन
उजाला चाहिये तो
ज़रूरी है समर्पण

नेह की रोशनी हो
मिटेगी रात बोझिल

पड़ा नवपल्लवों पर
कुहासा बूँद बनकर
बहुत उम्मीद बाकी
अभी इन्कार मत कर

हाथ मे हाथ हो तो
हार जायेगी मुश्किल
     :प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'