Friday 27 November 2015

वहाँ तुम थाम लेते हो

मियां मतलब भला क्या जो ख़ुदा का नाम लेते हो।
अगर नादान बच्चों से कड़ा तुम काम लेते हो।
वफ़ा देकर सनम मैंने यही दौलत कमाई है,
जहाँ मैं टूट जाता हूँ वहाँ तुम थाम लेते हो।
ज़रा दूकान में अपनी कहीं ईमान भी रख लो,
मुझे कंकड़ थमाकर मोतियों का दाम लेते हो।
यहाँ जनता तुम्हारी मुश्किलों से ज़ंग लड़ती है,
वहाँ तुम मखमली बिस्तर लगा आराम लेते हो।
किसी ने ज़िन्दगी दे दी इमारत को बनाने में,
वहीं तुम मुफ़्त में तख़्ती लगा ईनाम लेते हो।

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-प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'
फतेहपुर उत्तर प्रदेश

कई और किरदार है


रोशनी के लिये रोज़ जलती रही।
मोमबत्ती अकेली पिघलती रही।
एक औरत कई उसके किरदार हैं,
जब जरूरत हुई वो बदलती रही।
प्यार की राह में लाख काँटे मिले,
शायरी की वज़ह मुझको मिलती रही
बात तो ठीक थी पर ख़िलाफ़त न हो,
बस इसी खौफ़ से बात टलती रही।
कह गया था फ़कत बात तफ़रीह में,
देर तक एक बस्ती उबलती रही।

-प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'

Tuesday 24 November 2015

आग लगाने में व्यस्त हैं


कुछ लोग भले दर्द बँटाने में व्यस्त हैं।
कुछ और लोग आग लगाने में व्यस्त हैं।
ख़ुद के लिए जो ख़ास कुछ भी कर नहीं सके,
वो दूसरों का भाग्य बताने में व्यस्त हैं।
झगड़े फ़साद सीढ़ियाँ हैं राजनीति की,
हम तो अभी दुकान सजाने में व्यस्त हैं।
फ़ुरसत मिले तो हम भी करें देश के लिए,
है मुफ़लिसी का' दौर कमाने में व्यस्त हैं।
सब लोग मस्त हो गए रंगीन फिज़ा में,
बस एक हमीं बोझ उठाने में व्यस्त हैं।

-प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'

Saturday 21 November 2015

रुसवाइयों का डर

कभी टूटन कभी सिहरन कभी तनहाइयों का डर।
कभी बीते हुए उस वक़्त की परछाइयों का डर।
कभी लड़ियाँ गुलाबों की कभी महकी हुई सांसें,
कभी तो सेज की सिलवट कभी अँगड़ाइयों का डर।
मुझे जीने नहीं देगा सनम बदला हुआ आलम,
तुम्हारे घर बजेंगी जो उन्हीं शहनाइयों का डर।
तुम्हारे प्यार की ताक़त वफ़ाओं का भरोसा था,
हमें लगता नहीं था क्यूँ भला रुसवाइयों का डर।
अँधेरे में सुकूँ मिलता उजाले अब सताते हैं,
हमारी आँख को लगने लगा रानाइयों का डर।

कॉपीराइट @प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'

बदलने लगा है शहर इसलिए

मैं तड़पता रहा उम्र भर इसलिए।
तेरी यादों का ग़म था ज़हर इसलिए।
यक शरारा फ़क़त और तिनके कई,
बस्तियाँ जल उठीं इस तरह  इसलिए।
ख़ुद के घर का पता उसको ख़ुद ही न था,
वो भटकता रहा दर-ब-दर इसलिए।
वो परिंदा मिरे रू-ब-रू आ गया,
है अभी तक तुम्हारा असर इसलिए।
बात छोटी समझ बेख़बर ही रहे,
अब बदलने लगा है शहर इसलिए।

-प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'

Wednesday 18 November 2015

ज़रूरी है

बदल जाये अगर मौसम बदलना भी ज़रूरी है।
समय के वार से बच कर निकलना भी ज़रूरी है।
बहकते हैं क़दम बेशक जवानी हो किसी की भी,
समय रहते मियां लेकिन सँभलना भी ज़रूरी है।
भले सूरज बड़ा है एक सीमा है वहाँ पर भी,
दिये की लौ अँधेरी रात जलना भी ज़रूरी है।
अगर तुमने कसम दी तो अकेला भी चलूँगा मैं,
तुम्हारी याद लेकिन साथ चलना भी ज़रूरी है।
मुझे नाराज़गी में लफ्ज़ कड़वे कह गए हो तुम,
निभाने के लिए लेकिन निगलना भी ज़रूरी है।
कॉपीराइट@
-प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून

Sunday 15 November 2015

किस्सा अजब निकला

जिसे पत्थर समझ बैठे वही गर्दिश में रब निकला।
बहुत बेकाम था जो शख़्स वो कैसा गज़ब निकला।
किसी का इश्क़ जो दिल में रहे अब तक सँभाले हम,
हमारे वास्ते बेइन्तहां ग़म का सबब निकला।
कभी जो नूर होके आँख से दिल में बसा था जा,
ज़िगर का दर्द बनके आँख के रस्ते ही अब निकला।
कभी हर बात पे जो बाप को दुत्कार देता था,
वही अब फिर रहा कहता कि बेटा बेअदब निकला।
वही हर बार क्यों सरकार से सम्मान पाते थे,
ज़रा परदा उठा तो फिर वहाँ किस्सा अजब निकला।
प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'

मोहब्बत तो दिखाई दी

इन्हें जिनसे असल में थी मोहब्बत तो दिखाई दी।
चलो इस मोड़ पर आख़िर हक़ीक़त तो दिखाई दी।
अभी तक जो गए उन पर न आँसू आँख से निकले,
किसी के वास्ते चलिए शराफ़त तो दिखाई दी।
ग़लत की हम तरफ़दारी ज़रा सी भी नहीं करते।
चलो इस बार तुममें भी बग़ावत तो दिखाई दी।
यही हर एक को था शक कि सोने में मिला पीतल
भले कुछ देर से ही हो मिलावट तो दिखाई दी।
कहा करते सियासत से नहीं मतलब हमें यारों
किसी मौके चलो उनकी शरारत तो दिखाई दी।

आख़िरी तक जो लड़े हैं

निमित्त संस्था ने कानपुर में आत्मबली साहित्यकारों का सम्मान किया। ऐसे साहित्यकार जो शारीरिक अक्षमता को मात देकर साहित्यिक साधना कर रहे हैं और साहित्य क्षेत्र में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं।इस क्रम में आचार्य अम्बिकेश शुक्ल , डॉ. गिरीश कुमार श्रीवास्तव, श्री सुशील पाण्डेय, एवं पीयूष द्विवेदी पुतु का सम्मान किया गया।संस्था निमित्त इस अनूठे कार्यक्रम के लिए बधाई की पात्र है।मैं इस कार्यक्रम का साक्षी बनकर गौरवान्वित हूँ।इन आत्मबलियों के सम्मान में मेरी एक ग़ज़ल समर्पित है।

यकीनन देखने में तो कई आलू बड़े हैं।
मगर सच मानिये साहब वही अन्दर सड़े हैं।
समझ लाचार जिनको एक कोने में बिठाया,
स्वयं के आत्मबल से आज पैरों पर खड़े हैं।
क्षितिज इतिहास में लिक्खी गईं उनकी उड़ानें,
परिंदे आँधियों से आख़िरी तक जो लड़े हैं।
हमें बहलाइये मत झूठ के किस्से सुनाकर,
पता रखिये हमारे चाँद पर झंडे गड़े हैं।
नहीं यूँ ही पटल हिन्दी प्रकाशित हो रहा है,
चमक इसकी बताती है बहुत हीरे जड़े हैं।
-प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'

Tuesday 10 November 2015

याद हम भी थे

कभी इन बेड़ियों से वक़्त की आज़ाद हम भी थे।
कभी ऊँची उड़ानों के बड़े उस्ताद हम भी थे।
समय की सीढ़ियों ने इस क़दर हमको थका डाला,
हमेशा मोम जैसे थे नहीं फ़ौलाद हम भी थे।
ख़ुदा बँटती रहीं जिस दर तुम्हारी रहमतें सबको,
वहीं पर यक दिए की शक़्ल में आबाद हम भी थे।
सनम तेरी मोहब्बत में हज़ारो दिल लुटे थे जब,
हमारी थी भला औक़ात क्या बर्बाद हम भी थे।
हमारी क़ब्र पर भी फूल कोई फेंक कर लौटा,
तसल्लीबख्श है चलिए किसी को याद हम भी थे।

  -प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'

Monday 9 November 2015

ज़हर मेरा

यहाँ अब खौफ़ का मन्ज़र, निशाने में शज़र मेरा।
चली जो ज़ुल्म की आँधी, उजड़ जाए न घर मेरा।
ज़रा से लोग हैं वो जो अमन की बात करते हैं,
सभी की आँख में दिखने लगा मुझको ये डर मेरा।
ज़ुबाँ मेरी बहुत ज़िद्दी इसे सच बोलना ही है,
कभी इन आदतों से फिर भले कट जाय सर मेरा।
सियासत की ज़ुबाँ सीखी ज़रा सीखी अदाकारी,
दिखा है तब कहीं जाकर ज़माने में असर मेरा।
अभी तो पल रहा हूँ मैं तुम्हारी आस्तीनों में,
घुटेगा दम तुम्हारा तब गिरेगा जब ज़हर मेरा।

                   -प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'

Sunday 8 November 2015

तितली

कई उसके दिवाने हैं कई की जान है तितली।
गुलों की पाक़ उल्फ़त का हसीं अरमान है तितली।
बड़ी मस्ती भरी उसमे न उसको फ़िक्र काँटों की,
बड़ी बेफिक्र है मासूम है नादान है तितली।
यहाँ आना सँभल कर इस फिज़ा में रेडियेशन है,
जहां की फितरतों से अब तलक अन्जान है तितली।
बहुत मुश्क़िल सहेजे रख सको रंगत परों की तुम,
किताबों में दबा रखना बहुत आसान है तितली।
कई रोते हुए बच्चे हँसाये ज़िन्दगी में वो,
भले ही देखने में वो ज़रा सी जान है तितली।

-प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'

Saturday 7 November 2015

मंगल कभी उर्वर रहा होगा

तुम्हारा दिल किसी के वास्ते घर हो गया होगा।
हमारे वास्ते अब तक तो' पत्थर हो गया होगा।
ये रहमत बादशाहों की बँटी होगी रियाया में,
कोई इक बूँद तो कोई समंदर हो गया होगा।
अभी है बचपना ये दोस्ती गाढ़ी बहुत है जो,
जवानी तक हमारे बीच अंतर हो गया होगा।
करो ये कल्पना मंगल कभी उर्वर रहा होगा,
कहीं ये यूरिया से तो न बंज़र हो गया होगा।
कहा जो झूठ होता तो कई हमदर्द मिल जाते,
यकीं सच बोलने पर ही कलम सर हो गया होगा।
-प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'

Friday 6 November 2015

कोई हँसाता ही नहीं

रूठ कर बैठा रहूँ कोई मनाता ही नहीं।
माँ मुझे तेरे सिवा कोई हँसाता ही नहीं।
मैं बुलंदी पर मिरे हर ओर मीठे लोग हैं,
आइना भी आज मुझको सच बताता ही नहीं।
क्या बढ़ाये बॉस बेमतलब हमारी सैलरी,
पास डिग्री टॉप की पर हुनर आता ही नहीं।
ग़र मुझे मालूम होता यूँ उड़ाओगे इसे,
सच कहूँ बेटा कभी पैसे जुटाता ही नहीं।
इस जुदाई ने हमें कुछ इस तरह पागल किया,
कब मिले बिछड़े हमें कुछ याद आता ही नहीं।

-प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'

Thursday 5 November 2015

आधार लिख

हृदय की पट्टिका पर तुम हमारा प्यार लिख देना।
मिलन का गीत लिख देना प्रिये श्रृंगार लिख देना।
अगर नीयति हमारी पर तुम्हें पूरा भरोसा हो,
तनिक कोना तनिक हिस्सा तनिक अधिकार लिख देना।
कभी पतझड़ अगर आये न जीवन पुष्प मुस्काये,
नई उम्मीद बनकर तुम कलम मल्हार लिख देना।
विजय श्री हो अगर अपनी भले ही भूल जाना तुम,
हमारी हार का किस्सा हज़ारों बार लिख देना।
हमारी गलतियों से कुछ सबक तो सीख ले दुनिया,
हमारी हार से तुम जीत का आधार लिख देना।

-प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'

हठीले सपने

पहली ग़ज़ल का तीसरा शेर कानपुर की कवयित्री डॉ भावना तिवारी की क्षणिका
मुआवज़ा बँटा
वर्णमाला के अक्षरों के हिसाब से
गिनती में
हरिया फ़िर छूट गया ।
से प्रेरित है और उन्हीं को समर्पित भी।
दूसरी ग़ज़ल का मक़्ता (अंतिम शेर)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी को समर्पित।
रात जहाँ थी, रात वहीं पर।
बात जहाँ थी, बात वहीं पर।
कितने मौसम बदले लेकिन,
अश्कों की बरसात वहीं पर।
राज ताज़ सब बदल चुका है,
हरिया के हालात वहीं पर।
खेल ज़िंदगी खतरे पल-पल,
ज़रा चूक तो मात वहीं पर।
सौ माले सँग खाक मिल गई,
इन्सां की औकात वहीं पर।
-प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'



गुम से गए सजीले सपने।
गीली आँखें सीले सपने।
समझौता अब सीख चुके हैं
थे तो बहुत हठीले सपने।
ढली उम्र गिन रही बैठ कर
आँखों के पथरीले सपने।
उम्मीदों की मृग मरीचिका,
छोड़ गई रेतीले सपने।
मेरे साथ सफर में खोये,
तेरे भी रंगीले सपने।
पापा की कोशिश पूरे हों,
छुटकी के नखरीले सपने।
नव 'प्रसून' देंगे दुनिया को,
मेरे यही कँटीले सपने।

   -प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'

Wednesday 4 November 2015

बेवफ़ा किस्मत खड़ी उस पार है..

सब कहानी कह रहा अख़बार है।
मुश्किलों से आदमी दो चार है।
क्या समझ लूँ जो कली हँसने लगी?
क्या तुम्हारे प्यार का इज़हार है!
भ्रष्ट सिस्टम फैलता ही जा रहा,
लाइलाज़ हुआ यहाँ आजार है।
काम में नेता भले पीछे मगर,
बात लेकिन खूब लच्छेदार है।
मैं हुनर लेकर खड़ा हूँ इस तरफ़,
बेवफ़ा किस्मत खड़ी उस पार है।

-प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'
फतेहपुर उ.प्र.

Tuesday 3 November 2015

अश्क़ मेरी आँख का मेहमान है।

अश्क़ मेरी आँख का मेहमान है।
ज़िन्दगी के नस्र का उन्वान है।
आख़िरी ख़त तुम जिसे बतला रहे,
वो हमारी मौत का फ़रमान है।
छोड़ दूँ कैसे तुम्हें मैं सोचना,
कह दिया, कहना बहुत आसान है।
तुम हरी कालीन जिसको कह रहे,
खूबसूरत चाय का बाग़ान है।
खेल करके जी भरा तो तोड़ दो,
दिल हमारा खेल का सामान है।
था नहीं आसाँ पकड़ लेना उसे,
नाम छोटा है, बड़ा वो डॉन है।
क्या बुराई टिक सकी नेकी जहाँ,
है इधर तिनका उधर तूफ़ान है।
              -प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'

Monday 2 November 2015

ग़ज़ल

यहाँ हर शख़्स बस अपने लिए पागल दिखाई दे।
शहर अपना मुझे जैसे कोई' जंगल दिखाई दे।
कहाँ किस मोड़ पे ठहरी हुई है ज़िन्दगी आकर
हजारों प्रश्न हैं लेकिन न कोई हल दिखाई दे।
खिला है ग़ुल हिले पत्ते चले जब रेशमी झोंके
जुनूँ मेरा कहीं चेहरा कहीं आँचल दिखाई दे।
उसूलों को किया नीलाम तब नेता बना है वो
कभी इस दल दिखाई दे कभी उस दल दिखाई दे।
नकल से पास थे जो लग्ज़री गाड़ी चलाते हैं
पढाई में रहा अव्वल मुझे पैदल दिखाई दे।
-प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'

प्रशस्ति पत्र

Sunday 1 November 2015

मेरी ग़ज़लें

1.
तरक़्क़ी का मुझे ये रास्ता तैयार लगता है।
सियासत फ़ायदे वाला मुझे व्यापार लगता है।
धरम के नाम पर बेख़ौफ़ क़त्ले आम जारी है,
नफ़रत का यक़ीनन गर्म अब बाज़ार लगता है। 
नज़र में छा गया वो शख़्स कुछ ऐसा कि मत पूँछो,
उसके सामने हर अक़्स अब बेकार लगता है।
जुनूँ मेरा है उसके वास्ते ये क्या बताऊँ मैं,
पहली बार जैसा वो मुझे हर बार लगता है।
मुझे अच्छे नहीं लगते सितारे आसमा के अब,
ज़ेहन अच्छा नहीं होता तो गुल भी ख़ार लगता है
2.
मुहब्बत में यकीनन वक़्त तो बेकार होता है।
मगर इक खूबसूरत सिलसिला तैयार होता है।
न समझो आग तूफानों में ठंडी हो गई बुझकर
इश्क़ की राख में भी तो छुपा अंगार होता है।
चमक आँखों में आ जाती है जाने क्यूँ न जानूँ मैं
जब भी कभी उस शख्स का दीदार होता है।
मुहब्बत को निभा लेना नहीं आसान है यारों
गुलिस्ताँ की सुरक्षा में कँटीला तार होता है
संभालो इस अमानत को बहुत ही कीमती है ये
ज़िन्दगी के सफ़र में इश्क़ बस इक बार होता है।

3.
किसी के ग़म तले आँसू बहाना भूल जाता हूँ।
बड़ा खुदगर्ज़ हूँ' गुज़रा ज़माना भूल जाता हूँ।
न रखना दिल में' तू मेरी वफ़ा पर शक़ नहीं करना
भुलक्कड़ हूँ ज़रा वादा निभाना भूल जाता हूँ
चमक में भूल कर ख़ुद को उलझ जग के भुलावे में
सफ़र में हूँ, किधर अपना ठिकाना भूल जाता हूँ
दिखाई रौशनी जिसने अँधेरे दौर में मुझको
उसी के सामने दीपक जलाना भूल जाता हूँ
ज़ुदा मुझको न करना भूलकर मेरी ये' आदत है
चला जाऊँ अगर तो लौट आना भूल जाता हूँ।

4.
 फ़िज़ा के रंग से वो शख़्स तो अन्जान लगता है।
भले ज़िन्दा मगर मुझको बहुत बेज़ान लगता है।
बहुत पैसा बहुत रुतबा बहुत असबाब रखता है
न रोना बंद फिर भी,  ग़म भरी दूकान लगता है।
ज़माने ने खरी-खोटी उसे जीभर सुनाई है
अभी भी कह रहा है इश्क़ तो आसान लगता है।
सफेदी है फ़क़त तन में, मगर मन स्याह ही इनका
ख़ुदा जिसको समझते हो मुझे शैतान लगता है।
शहर के फ्लैट में सब है मगर मन ऊब जाता है
बहुत अच्छा मुझे वो गाँव का दालान लगता है।

5.
 कभी गुज़रे हुए दुःख दर्द को तुम याद मत करना।
ख़ुशी के वक़्त को भी बेवज़ह बर्बाद मत करना।
मुसलमां और हिन्दू को लड़ाने की वज़ह हैं ये
मियां ये नागफनियाँ हैं इन्हें आबाद मत करना।
बड़े मीठे बड़े खट्टे मिलन के पल सनम देखो
विरह का ज़िक्र करके तुम इन्हें बेस्वाद मत करना।
सुकूँ मुझको बहुत है प्यार की इस क़ैद में जानम
मुझे दिल के झरोखे से कभी आज़ाद मत करना।
बुढ़ापे के लिए बस एक ही उम्मीद होती है
किसी को ऐ ख़ुदाई पाक बेऔलाद मत करना

 6.
अगर हमको तुमसे मुहब्बत न होती
कभी तुमसे कोई शिकायत न होती
कहानी न बढ़ती हमारी तुम्हारी
अगर आँख से वो शरारत न होती
अगर ख़ून में दूध माँ का न होता
हमारे वतन की हिफाज़त न होती
शहर में यक़ीनन बड़ा नाम होता
अगर मुझमें इतनी शराफ़त न होती
ये मुश्किल भरे दिन न कटते हमारे
अगर दोस्ती की अमानत न होती
गुलिस्ताँ हमारा महकता ही रहता
अगर इतनी गंदी सियासत न होती
अगर प्यार बेटों के दरम्यान होता
चिता में पिता की ज़लालत न होती

                                            copyright@    -प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून