Wednesday 10 February 2016

एक साँचे में

2122 2122 2122 212

ख़ास दरवाजे उन्हीं के वास्ते खुलते रहे।
जो वहाँ दरबान से कुछ ख़ास हो मिलते रहे।

सरफ़रोशी के समय ये राज़ खुलकर आ गया,
साथ शेरों के मियां गीदड़ कई पलते रहे।

सीख पाये वो नहीं अब तक सड़क पर दौड़ना,
लोग जो ताउम्र बस फुटपाथ पर चलते रहे।

सांप होते तो सँभल जाता समय रहते मगर,
आस्तीनों में 'मेरे कुछ जोंक  थे पलते रहे।

कुछ पढ़ाई मौज मस्ती और फिर बेकार हैं,
एक साँचे में अधिकतर नौजवाँ ढलते रहे।
-प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून,

No comments:

Post a Comment