Tuesday 3 November 2015

अश्क़ मेरी आँख का मेहमान है।

अश्क़ मेरी आँख का मेहमान है।
ज़िन्दगी के नस्र का उन्वान है।
आख़िरी ख़त तुम जिसे बतला रहे,
वो हमारी मौत का फ़रमान है।
छोड़ दूँ कैसे तुम्हें मैं सोचना,
कह दिया, कहना बहुत आसान है।
तुम हरी कालीन जिसको कह रहे,
खूबसूरत चाय का बाग़ान है।
खेल करके जी भरा तो तोड़ दो,
दिल हमारा खेल का सामान है।
था नहीं आसाँ पकड़ लेना उसे,
नाम छोटा है, बड़ा वो डॉन है।
क्या बुराई टिक सकी नेकी जहाँ,
है इधर तिनका उधर तूफ़ान है।
              -प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'

No comments:

Post a Comment