Monday 2 November 2015

ग़ज़ल

यहाँ हर शख़्स बस अपने लिए पागल दिखाई दे।
शहर अपना मुझे जैसे कोई' जंगल दिखाई दे।
कहाँ किस मोड़ पे ठहरी हुई है ज़िन्दगी आकर
हजारों प्रश्न हैं लेकिन न कोई हल दिखाई दे।
खिला है ग़ुल हिले पत्ते चले जब रेशमी झोंके
जुनूँ मेरा कहीं चेहरा कहीं आँचल दिखाई दे।
उसूलों को किया नीलाम तब नेता बना है वो
कभी इस दल दिखाई दे कभी उस दल दिखाई दे।
नकल से पास थे जो लग्ज़री गाड़ी चलाते हैं
पढाई में रहा अव्वल मुझे पैदल दिखाई दे।
-प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'

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