कभी टूटन कभी सिहरन कभी तनहाइयों का डर।
कभी बीते हुए उस वक़्त की परछाइयों का डर।
कभी लड़ियाँ गुलाबों की कभी महकी हुई सांसें,
कभी तो सेज की सिलवट कभी अँगड़ाइयों का डर।
मुझे जीने नहीं देगा सनम बदला हुआ आलम,
तुम्हारे घर बजेंगी जो उन्हीं शहनाइयों का डर।
तुम्हारे प्यार की ताक़त वफ़ाओं का भरोसा था,
हमें लगता नहीं था क्यूँ भला रुसवाइयों का डर।
अँधेरे में सुकूँ मिलता उजाले अब सताते हैं,
हमारी आँख को लगने लगा रानाइयों का डर।
कॉपीराइट @प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'
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