मन तुझको मैं क्या बहलाऊँ टूटी फूटी आशाओं से
मुझे पता है टूट चुका है जो था अब तक भ्रम का घेरा
किरणें झूठी लुप्त हुई हैं अब यथार्थ का घोर अँधेरा
यंत्र तंत्र कब बाँध सकें हैं अजय काल को सीमाओं से
एक नियंता एक धुरी है शेष जगत तो चाकर ठहरा
सबका है अस्तित्व उसी से ऊँचा नभ या सागर गहरा
करूँ अहं क्या सुविधाओं का क्या घबराऊँ विपदाओं से
पल भर को भूला था तुझको सोचा था मैं बहुत बड़ा हूँ
जीवन के अंतिम क्षण पाया जहां से चला वहीं खड़ा हूँ
लक्ष्य डूबना था मेरा मैं क्यों लड़ता था धाराओं से
जीवन पथ पर विजय मिली तो श्रेय लिया मोती बाँटे
अश्रु असीमित बहे वहाँ पर जहाँ मिले थोड़े काँटे
क्यों न रहा मैं परे जीत की और हार की घटनाओं से
लिखे हुये में जुड़े घटे ना चाहे जितनी कलम चला ले
लिखने और मिटा सकने का जानें क्यों झूँठा भ्रम पाले
सत्य तुझे मैं क्यों झुठलाऊँ उम्मीदों की कविताओं से
प्रवीण 'प्रसून'
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