Monday 11 December 2017

मन तुझको

मन तुझको मैं क्या बहलाऊँ टूटी फूटी आशाओं से

मुझे पता है टूट चुका है जो था अब तक भ्रम का घेरा
किरणें झूठी लुप्त हुई हैं अब यथार्थ का  घोर  अँधेरा

यंत्र तंत्र कब बाँध सकें हैं अजय काल को सीमाओं से

एक नियंता एक धुरी है शेष जगत तो  चाकर  ठहरा
सबका है अस्तित्व उसी से ऊँचा नभ या सागर गहरा

करूँ अहं क्या सुविधाओं का क्या घबराऊँ विपदाओं से

पल भर को भूला था तुझको सोचा था मैं बहुत बड़ा हूँ
जीवन के अंतिम क्षण पाया जहां से चला वहीं खड़ा हूँ

लक्ष्य डूबना  था  मेरा  मैं  क्यों  लड़ता  था धाराओं से

जीवन पथ पर विजय मिली तो श्रेय लिया मोती बाँटे
अश्रु असीमित बहे वहाँ पर  जहाँ  मिले  थोड़े  काँटे

क्यों न रहा मैं परे जीत की और हार की घटनाओं से

लिखे हुये में जुड़े घटे ना चाहे जितनी  कलम  चला ले
लिखने और मिटा सकने का जानें क्यों झूँठा भ्रम पाले

सत्य तुझे मैं क्यों झुठलाऊँ उम्मीदों की कविताओं से
                                          प्रवीण 'प्रसून'
             

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