Monday 26 June 2017

ख़्वाब सजाने में

2222 2222 222
मुमकिन पहरे तुमसे मिलने जाने में
रोक सकोगे क्या ख़्वाबों में आने में

सारे फ़न हैं  मुझमें उसको लगता है
उलझी है वो दुनिया को समझाने में

मैं लौटा तो छूट गयी मेरे पीछे
एक उदासी उसके ठौर ठिकाने में

एक नज़र दिख जाऊँ तो खिल खिल जाती
जाने क्या दिख जाता मुझ दीवाने में

शायद फिर गुज़रे हैं वो उन गलियों से
छू से गये अहसास वही अनजाने में

नाम लबों तक लाकर बात बदल देते
कितनी आगे हो तुम बात बनाने में

दिल धड़कन सब  नाम तुम्हारे लिख डाला
क्या रक्खा अब मिलने और मिलाने में

No comments:

Post a Comment