Sunday 1 January 2017

बदलते रहे

वो क्यों बोलने में सँभलते रहे
लगा मुझको सच वो निगलते रहे
वहाँ ख़ास की पूछ होती रही
मियां आम थे हम तो टलते रहे
मिरी ज़िन्दगी की कहानी छपी
रिसाले हज़ारों निकलते रहे
छपा था जो अन्दर वही रह गया
कवर पेज लेकिन बदलते रहे
पता था मुझे झूठ बोला गया
ये मज़बूरियां थी बहलते रहे
    :प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'

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