2222 2222 2222 1212
ग़म के घर से निकला फिर मैं ग़म के जंगल चला गया।
दर्द मिटाने को मैख़ाने क्यों मैं पागल चला गया।
उसने बोला दारू सौगातें लायेगी चले चलो,
और कमल की लालच में फिर मैं उस दलदल चला गया।
गुज़रा वक़्त डुबाने बैठा मैं दारू में ज़रा ज़रा,
अंजाने ही नासमझी में खुशियों का कल चला गया।
खाली कर बोतल दारू की आँसू अपने भरे मगर,
आँसू के सागर में मेरी माँ का आँचल चला गया।
चैन मिले इक पल इस ख़ातिर दो कश मैंने लगा लिए,
और धुँए में तब से खोता मेरा हर पल चला गया।
प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'
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