हमारा क्या करेगा ये कहो बिगड़ा जमाना भी।
हमें मालूम है छत से मियां पत्थर चलाना भी।
हमारा शौक है ये अम्न के हम फूल बाँटें तो,
गली से बाग़ की अपना शग़ल काँटे हटाना भी।
तुम्हारी इस ज़ुदाई से पता ये भी चला मुझको,
बड़ा मुश्क़िल ग़मों के वक़्त का बोझा उठाना भी।
कमाई के हुनर सँग ही शहर से सीख आया है,
हमारी आँख का तारा हमें आँखें दिखाना भी।
मधुर मुस्कान के पीछे छिपा ली बेवफाई भी,
बहुत आसान है बेशक मुझे उल्लू बनाना भी।
-प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'
फतेहपुर
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