Friday 4 December 2015

चुनाव

है चुनाव का मौसम आया, चढ़ा सियासी पारा है।
दारू बाजों का जमावड़ा, चमचों की पौ बारा है।

रात-रात भर चले कहानी, दिनभर एक पहाड़ा है।
गाँव हमारा गाँव नहीं अब, लगता एक अखाड़ा है।

गणित लगाते ठाकुर बाबा, घेरे हर प्रत्याशी है।
कुछ के चेहरे खिले हुए हैं, कुछ को हुई उदासी है।

वोटर कितने कौन जाति में, रट्टा मारे बैठे हैं।
जिनकी संख्या ज़्यादा निकली, अगुवा उनके ऐंठे हैं।

हैण्डपम्प चकरोड खड़ंजा, पेंशन, कार्ड बनाओगे।
जनता सबसे पूछ रही है, क्या क्या हमें दिलाओगे।

कुछ ने पत्ते खोल दिए हैं, कुछ मुँह सिले हुए देखो।
कुछ हैं एक तरफ़ खुलकरके, कुछ हैं घुले मिले देखो।

कुछ कानाफूसी में माहिर, सेंधमार कुछ जागे हैं।
कुछ मक्खन पालिश वाले तो, कुछ जुगाड़ में आगे हैं।

हाथ जोड़कर खड़े चौधरी, पीछे रैफल वाले हैं।
कैसे इनको मना करोगे, गुंडे जी के साले हैं।

राजनीति की गणित कठिन है, छोटी समझ हमारी है।
यह भी खींचे वह भी खींचे, मुश्किल राह दुधारी है।

प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'

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