जिसे पत्थर समझ बैठे वही गर्दिश में रब निकला।
बहुत बेकाम था जो शख़्स वो कैसा गज़ब निकला।
किसी का इश्क़ जो दिल में रहे अब तक सँभाले हम,
हमारे वास्ते बेइन्तहां ग़म का सबब निकला।
कभी जो नूर होके आँख से दिल में बसा था जा,
ज़िगर का दर्द बनके आँख के रस्ते ही अब निकला।
कभी हर बात पे जो बाप को दुत्कार देता था,
वही अब फिर रहा कहता कि बेटा बेअदब निकला।
वही हर बार क्यों सरकार से सम्मान पाते थे,
ज़रा परदा उठा तो फिर वहाँ किस्सा अजब निकला।
प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'
Sunday 15 November 2015
किस्सा अजब निकला
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