Tuesday 22 August 2017

मैं हथेली पर

मैं हथेली पर लिये हूँ एक दिया उम्मीद का
किन्तु नैराश्य की आंधी न रोके रुक रही

सूख कर जो मर गए पौधे न ये हरियाएँगे
अब सृजन की कल्पना में गीत कैसे गाएंगे
खंडहर के स्वप्न दुस्तर छोड़ते पीछा नहीं
नींव नव निर्माण की कैसे कहो रख पाएंगे

अब उजाले की बची संभावना भी चुक रही

तन हुआ आज़ाद लेकिन मन नहीं आज़ाद है
जीभ पर अब भी गुलामी का बचा कुछ स्वाद है
क्रांति के किस्से सभी स्मृति पटल से मिट गए
या तुम्हें बलिदान का वो दौर अब भी याद है

मुश्किलों के सामने गर्दन कहो क्यों झुक रही

आपसी सम्बन्ध सारे बेतरह कड़ुआ गये
प्रेम के पौधे जलन की धूप में मुरझा गये
अर्थ ही आधार है अब व्यर्थ सब व्यवहार हैं
वे सगे जो स्वार्थ वाले दायरे में आ गये

मित्रता अब क्यो नियत अधिकार की इच्छुक रही

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