Sunday 8 January 2017

मैं फ़साने प्यार के बुनता हुआ

कोशिश A के अन्तर्गत
मैं फ़साने प्यार के बुनता हुआ
दरमियाँ दीवार के चुनता हुआ
मान लेता हार ग़र दिखता नहीं
आसमाँ मुझको ज़मीं छूता हुआ
नाम मेरा दूर तक पहुँचा मगर
मैं तुम्हारे नाम पर अटका हुआ
तितलियाँ क्यूँ छोड़ गुलशन को चलीं
अब हवाओं में ज़हर ज़्यादा हुआ
फिर पलट सकता है बाज़ी याद रख
एक प्यादा अंत तक पहुँचा हुआ
         :प्रवीण श्रीवास्तव 'प्रसून'

1 comment:

  1. मैं फ़साने प्यार के बुनता हुआ
    दरमियाँ दीवार के चुनता हुआ

    bahut khub

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