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उसकी खों-खों का
आदी हो चुका है
पूरा टोला,और उसका परिवार झोल खाती चारपाई भी
उस कृशकाय मृतप्राय को
ढोने से कर देती है इन्क़ार कई बार
लेकिन वो जनाना उँगलियाँ बींध देती हैं बार-बार
जो बाँधे हैं उम्मीद
अभी भी पल्लू में
कहना सुनना
अब वश में नहीं
लेकिन मुरझाती आँखें
अभी भी कहती और
ख़ुद ही समझती रहतीं
नज़रें...
बच्चों की पिचकी आँतों.. नासमझ आँखों से होती हुई आख़िर में थककर
ठहर जाती हैं
असमय झुर्रीदार हुईं
जनाना कलाइयों में बच रहीं सिर्फ़ एक-एक चूड़ियों पर ।
उम्दा काव्य चित्रण !
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